जिसे अपनी ज़िन्दगी बनाया उसे कैसे बताऊ,
इस दिल का हाल सुनाने के लिए वो लब्ज़ कहाँ से लाऊ,
आज चलते चलते कुछ पुराने ख़यालात याद आ गए,इस चेहरे पर थोड़ी मुस्कान आई ,और दिल भी थोड़ा बेचैन हुआ।क्योंकि वो जो पल थे उनमें खोने का उतना ही मज़ा है जितने एक फ़िल्म को देखते देखते उस फिल्म में खोने का।
आज बात होगी फिल्म की ,क्योंकि जैसे फिल्मे हमसे प्रेरित होती है वैसे ही हम भी उसी फ़िल्म से प्रेरित होती है।और हमारी फ़िल्म का नाम है "ज़िन्दगी" जिस फ़िल्म के हीरो हम यानी स्वयं होते है और विलेन होता है वो "दर्द देने वाले पल" ये जो विलेन है ना हर वक़्त हमे कमज़ोर करना चाहता है तभी तो किसी अजनबी को दिल के इतने करीब ला देता है जैसे हमारी इस फ़िल्म की सुरुआत उनसे ही हुई हो।चुकी हम इस फ़िल्म के एक पात्र है और हमारे भगवान उस फिल्म के डायरेक्टर।हमे हर पल हर क्षण एक नया इम्तेहां देना पड़ता है इसलिए नही की हमे और मजबूत बनाना है बल्कि इसलिए क्योंकि वो हमारे इस पात्र का हिस्सा है जो हमे बखूबी करना है।जो हर इम्तेहां में अच्छा प्रदर्शन करता है उसको उसके फी के तौर पर हमारे डायरेक्टर के तरफ से कुछ गिफ्ट दिए जाते है जिन्हें हम"खुशी" कहते है।हर पल हम टूट जाते है और हम जितना टूटते है हमे उतना ही दर्द मिलता है क्योंकि आपने अक्सर फ़िल्म में देखा होगा कि जब हीरो घायल हो जाता है तो विलेन उसे और मारता है ।बिल्कुल उसी तरह हमारी ज़िंदगी है जैसे जैसे हम परफेक्ट बनते जाते है वैसे वैसे हमे अपनी फी यानी वो खुशी मिलने लगती है।और एक पल ऐसा आता है जब हम पूरी तरह से अपना रोल निभा चुके होते है और उस समय हमें फिर से दूसरे रोल के लिए तैयार होने के लिए हमे उस ख़ुदा के पास जाना पड़ता है,जिसे हम "मौत "कहते है।और ये वो मौत नही है जिसने सिर्फ दर्द थे ये वो मौत है जो हमे एक नए रोल के साथ फिर इसी सेट(पृथ्वी) पर आना है।मस्ती करने के लिए....
धन्यवाद
मनीष..........✍