ये आंसू किसी को बुझा (समझाना)नही सकता
कि ये क्यों परोक्ष (दूर)जा रहे हैं।
आँखों के अलावे इसे कोई नही रोकता
जिज्ञासा है मुझे की ये कया कहना चाह रहे हैं।
इन आंसुओं के कितने दृग(आँख)दृष्टी(आँख)पर चढ़ गए।
इन आसुंओं से कितने समुद्र उप गए ।
कितने आंसू काम आ गए
कितने बेबजह बह गए।
ये आंसू कितने प्रस्तर(पथर)पिघला पाये,
कितने पाषाणों के प्यास बुझाए ।
फिर भी पीयूष परखा न गया।
ऐसे ही लोग पाषानुर कहलाये।।
जब तक की वेदना बेड़िया खुलती नही
तब तक भी अपना कोई लग रहा नही
अब जबकि वेदना की किवाड़ खुली ,
तो अपने भी जाग रहे नही।।
इस आंसू के आँखों से ,अब आंसू और बचा नही
कितने के कारन बहा कर खत्म कर दिए,अब और आंसू बहाता नही
आंसू सुख के जैसा,सुख सपनो की मोतियां है बहुमूल्य
पर कैसे खो जातें हैं जंगल में मोती फिर पाणि लगता नही।