पार्टी छोड़ते ही नेता क्यों बन जाते हैं विभीषण ?
पार्टी छोड़ते ही नेता क्यों बन जाते हैं विभीषण ?
कभी पार्टी का झंडा उठा कर घूमते नेता और अपनी पार्टी के लिए जान तक न्योछावर करने वाले नेता और अपनी वर्तमान पार्टी के सुप्रीमो के अति वफादार रहने वाले नेता जब अपनी वर्तमान पार्टी को छोड़कर जाते हैं तो पानी पी पी कर अपनी पुरानी पार्टी को कोसते हैं और पार्टी सुप्रीमों को पर जबरदस्त तरीके से आरोप प्रत्यारोप का दौर शुरू कर देते हैं ।
अभी हाल ही में बसपा से गये एक नेता नसीमुद्दीन सिद्दकी ने मायावती के खिलाफ जबरदस्त तरीके से मोर्चा खोल रखा है उ प्र चुनावों से पूर्व भी भाजपा में गये स्वामी प्रसाद मौर्य ने मायावती के खिलाफ जबरदस्त मुहिम चलाई और आरोप प्रत्यारोप चलते रहे ।
अभी ताजा उदाहरण देखें तो आम आदमी पार्टी के विधायक ने अरविंद केजरीवाल के खिलाफ अनशन कर मोर्चा खोल रखा है
वैसे तो बहुत से नेताओं के ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे जब वो अपनी वर्तमान पार्टी को छोड़ कर जाते हैं या फिर उनकी अपनी वर्तमान पार्टी में महत्वकांक्षाएं पूरी नहीं हो पाती तो वो अपनी पार्टी के सुप्रीमो के खिलाफ मोर्चा खोल देते हैं ।
सबसे पहले हम बात करते हैं बसपा के पूर्व नेता नसीमुद्दीन सिद्दकी से वे बताएं कि जब मायावती द्वारा बसपा में इस प्रकार के तानाशाही भरे कृत्य किये जा रहे थे अवैध वसूली की जा रही थी तब तो आप उन कृत्यों में बराबर के भागीदार थे तब आपने आवाज क्यों नहीं उठाई ?
लगभग यही बात मैं स्वामी प्रसाद मौर्य के बारे में भी कहना चाहता हूं ।
अब बात करते हैं आम आदमी पार्टी के बर्खास्त मंत्री विधायक कपिल मिश्रा जिन्होंने दिल्ली की राजनीति में भूचाल पैदा कर दिया है अरविंद केजरीवाल के ऊपर आरोपों की बौछार कर दी है और अनशन पर भी बैठ गए हैं ।
मेरा कहना है कि जिस भ्र्ष्टाचार को खत्म करने के लिए आम आदमी पार्टी का उदय हुआ अरविंद केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री बने । आज उन्हीं पर उनकी पार्टी के विधायक व बर्खास्त मंत्री कपिल मिश्रा आरोप लगा रहे हैं जो केजरीवाल भ्र्ष्टाचार को लेकर दूसरी पार्टियों को कटघरे में खड़ा कर उनकी बखिया उधेड़ा करते थे आज उनके ही विधायक उनकी बखिया उधेड़ उनको कॉलर पकड़ तिहाड़ ले जाने की बात कर रहे हैं ।
मेरा कहना है कि बर्खास्त मंत्री कपिल मिश्रा जिन्होंने अरविंद केजरीवाल के ऊपर जो आरोप प्रत्यारोप लगाए हैं उन पर वो अब तक क्यों चुप रहे ?
जब उनको ये मालूम था कि केजरीवाल पार्टी के अंदर काला पीला कर रहे हैं तब उन्होंने आवाज कईं नहीं उठाई ?
मेरा मत---
मेरा ऐसा मानना है कि राजनीति एक अति महत्वकांक्षाओं का खेल है ज्यों ज्योँ राजनीति कर रहे नेताओं की महत्वकांक्षा बढ़ती जाती है या फिर उनकी पार्टी के अंदर महत्वकांक्षा पूरी नहीं हो पाती या फिर किसी महत्वकांक्षा के चलते पार्टी सुप्रीमों से उस नेता का छत्तीस का आंकड़ा हो जाता है तब ही इस प्रकार की नोटंकी देखने को मिलती हैं ।
उसके बाद आग में घी डालने का काम उस नोटंकी कर रहे नेता के साथ मिलकर पर्दे के पीछे रहकर विरोधी पार्टियां करती है और रही सही कसर पूरी कर देता है मीडिया ।
मेरा कहना है कि ठीक है जो व्यक्ति आज अपनी पार्टी के सुप्रीमो पर आरोप लगा रहा है उसको कटघरे में खड़ा करो लेकिन जो व्यक्ति आरोप लगा रहा है क्या उसको भी कटघरे में नहीं खड़ा किया जाना चाहिए ?
जितना दोषी आज जितने भी नेता जो अपनी पार्टी के सुप्रीमो के खिलाफ आरोप लगाकर बता रहे हैं क्या वो भी उसमे बराबर के साझीदार नहीं थे ?
दोषी कौन ?
राजनीतिक गलियारों से निकल कर समाज मे फैल रही भ्र्ष्टाचार नामक बीमारी के लिए किसे दोष दें नेताओं को ? सिस्टम को ? या फिर अपने आपको ?
अब क्योंकि लोकतंत्र में आम जनता के वोट से सरकार बनती और बिगड़ जाती है तो जनता की ही ये जिम्मेदारी भी बनती है कि वे जिस व्यक्ति या जिस पार्टी को वोट दे रहे हैं वो पार्टी या वो व्यक्ति उसकी जन आकांक्षाओं को पूरा कर सकता है या नहीं ?
लेकिन चुनावों के दौरान देखा जाता है कि जनता वोट कभी धर्म के नाम पर कभी हिन्दू मुसलमान के नाम पर कभी भाषा या क्षेत्रवाद के नाम पर करती आई है विकास के नाम की बात करने वालों को या उस जनता के लिए संघर्ष करने वालीं को यही जनता साइड में लगा देती है और धर्म और मजहब के नाम पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने वालों के नाम पर अपना ठप्पा लगा देती है । दलबदलू नेताओं को चुनकर भी यही जनता लोकसभा और विधानसभा में पहुँचा देती है ।
राजनीति एक व्यवसाय
आज जिस प्रकार से चुनाव मंहगा मंहगा होता जा रहा है करोड़ों रुपये फूंकने के बाद नेता विधायक या सांसद बन कर जाता है तो वो क्या जनता का विकास करेगा ?
सबसे पहले तो वो अपना चुनाव में खर्च किया रुपया कमायेगा फिर उस रुपये की ब्याज फिर अगले चुनाव का खर्च निकलेगा अब वो नेता विकास कब करेगा ।
बस यही जनता को समझना होगा ।
पं संजय शर्मा की कलम से