कश्ती तब भी चलते थे, कश्ती अब भी चलते हैं,
तब कागज के चलते थे, अब सपनो के चलते हैं।
शिकवे तब भी होते थे, शिकवे अब भी होते हैं,
तब गैरों के होते थे, अब अपनों के होते हैं।
खेल तब भी होते थे, खेल अब भी होते है,
तब चाले थी अपनी, अब मोहरे हमें ही चलते हैं .
कुछ बचपन तब भी थी, कुछ बचपन अब भी है,
तब शरारत में होते थे, अब शराफ़त में होते हैं .
दिन तब भी होते थे, दिन अब भी होते हैं,
तब धूप सुहानी थी, अब छाव भी जलते हैं,
रोते तब भी थे, जब माँ छिप जाती थी,
रोते अब भी है, माँ से हीं छिप-छिप कर।
तब चन्दा मामा था, अब उसपे भी नमी सी है,
तब हर लम्हा अपना था, अब वक़्त की कमी सी है .
तब छुपते से खेल-खेल में, अब ये मजबूरी है,
जो मुट्ठी में थी खुशियाँ, अब उनसे भी दूरी है।