अँधेरी आसमान के नीचे,
वो जमीन पर लेटा था…
चारों ओर थे स्वान भौंकते,
वो गरीब का बेटा था.
भूख से उसकी आँखे सूजी,
और हाड़ भी सुखा था…
एक हाथ से पेट दबाता,
कई दिन से वो भूखा था.
घड़ियाँ गिन कर पहर काटता,
ऐसी विपत्ति ने घेरा था.
पल-पल वो करवट लेता,
दूर अभी सवेरा था.
उठ कर ही क्या करना था?
दिन भी दीन पर हँसता था.
रस्ता ही घर था उसका,
और रस्ता ही रस्ता था.
शर्म बेच कर पहले ही खा गया,
वो अधम भिखारी था.
अपनी ही काया को घिसट रहा था,
वो खुद पर ही भारी था.
घिसट-घिसट कर पहुँच गया,
वो एक अमीर के घर.
वो अमीर को माथा टेक रहा था,
अमीर कुत्ते को रोटी फेंक रहा था.
कुत्ता उससे अच्छा था,
जो पूरी रोटी निगल रहा था.
अमीर पाषण ह्रदय बहुत था,
अब भी नहीं पिघल रहा था.
भूख से हारा उसने अब,
कुत्ते के मुख से रोटी छिना…
स्वान-मनुज में युद्ध छिड़ा था,
था एक को मरना, एक को जीना.
अमीर ने निर्बल को धिक्कारा…
माना तू भी भूखा है,
पर ये जो तू चाट रहा है,
ये कुत्ते का जूठा है,
तेरा तुझ पर कोई वश नहीं?
तू कुत्ते से भी कुत्ता है.
कैसे तेरा सोच,
यूँ इतना बीमार हुआ?
तेरे इस हरकत से,
इंसानियत शर्मसार हुआ.
दीन साहस समेट के बोला,
कहाँ तेरी इंसानियत थी?
जब मेरी माँ भूखी थी?
क्या इंसानियत तब भी थी धरा पर?
जब मेरी हड्डियाँ सुखी थी?
तब क्यूँ ना इंसानियत को सोचा?
जब मेरे पिता को कुत्तों ने नोचा?
अमीर ने अपना पत्ता खोला,
इस बार कुछ गरज के बोला…
तू तो कब से भूखा है,
तेरा क्या चला जाएगा?
जो मेरे कुत्ते रह गए भूखे,
तेरे बाप की तरह,
तुझे भी नोच खायेगा…