उसके ये कैसे बोल थे ,नासमझ बन कर दिया अनसुना मैंने,
उसके ये कैसे जज्बात थे जिसे अपना मान थम लिया हाथ मैंने,
कशमकश में तो,ज़िन्दगी का नमूना देख कह उठी मैं ,
उसकी वो कैसे नफरत जिसमे खुद से नफरत कर ली मैंने ।
मेरी ख्वाहिश का कुछ और है कहना
तुम रूबरू हो तो फिर कुछ और हैं सहना
मैं वक़्त से पूछते थक गई ,
की क्या मेरी आजमाइश ही है ,मेरे ज़िन्दगी का गहना ।
मेरे अल्फाज़ सिर्फ मेरे है तो कहना मुनासिब नही होगा ,
मेरी ख्वाहिशें सिर्फ मेरी है तो ,सोचना मुनासिब नही होगा ,
मेरी ज़िन्दगी सिर्फ मेरी है तो जीना मुनासिब होगा ,
लेकिन अगर मैं ये कहू तुमसे की,
मेरे जज़्बात सिर्फ मेरे है तो ,
तो क्या वक़्त को ये मोहब्बत मुनासिब नही होगी ?